Verse: 13,5
मूल श्लोक :
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्िचतैः।।13.5।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.5।।(यह क्षेत्रक्षेत्रज्ञका तत्त्व) ऋषियोंके द्वारा बहुत विस्तारसे कहा गया है तथा वेदोंकी ऋचाओंद्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी कहा गया है।
।।13.5।। प्रस्तुत अध्याय में जो विवेचन किया जा रहा है वह कोई व्यर्थ का भाषण अथवा श्रीकृष्ण की बुद्धि की कल्पना मात्र नहीं है। यहाँ भगवान् स्वयं ही स्पष्ट कहते हैं कि ऋषियों द्वारा अनुभूत और प्रतिपादित सत्य की ही वे पुनर्घोषणा कर रहे हैं। संक्षेप में? उपनिषदों के प्रतिपाद्य ब्रह्मतत्त्व का ही निरूपण इस अध्याय का विषय है।कोई व्यक्ति प्रश्न कर सकता है कि क्यों हम उपनिषद् के ऋषियों के कथनों को तत्परता से स्वीकार करें ऐसा प्रश्न केवल वे ही लोग कर सकते हैं? जिन्हें ऋषियों के प्रति अश्रद्धा है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि हमे ऋषियों के प्रति महान् आदर और सम्मान नहीं भी हो? तब भी हमें उनके द्वारा प्रतिपादित सत्य को स्वीकारना ही होगा? क्योंकि वे उपनिषद् के? निश्चित किये हुये युक्तियुक्त कथन हैं। उनके कथन कोई बौद्धिक आलेख अथवा दैवी आज्ञायें नहीं हैं? जो साधारण असहाय जनता पर विशेष दैवी अधिकार प्राप्त किसी देवदूत ने थोप दी हों।जब प्रमाण तर्क एवं अनुभव के द्वारा किसी सत्य को सिद्ध किया जाता है? तब किसी भी बुद्धिमान पुरुष को उसके युक्तियुक्त संगत होने के कारण स्वीकारना ही पड़ता है।अर्जुन के मन में रुचि उत्पन्न करने के पश्चात् भगवान् कहते हैं,
English Translation By Swami Sivananda
13.5 Sages have sung in many ways, in various distinctive chants and also in the suggestive words indicative of the Absolute, full of reasoning and decisive.