Verse: 13,27
मूल श्लोक :
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।।13.27।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.27।।हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं? उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे उत्पन्न हुए समझो।
।।13.27।। क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (पुरुष) इन दोनों में ही स्वतन्त्र रूप से कोई एक ही तत्त्व इस चराचर जगत् का कारण नहीं है। इन दोनों के संयोग से जगत् उत्पन्न होता है परन्तु इन दोनों का संयोग वास्तविक नहीं? वरन् अन्योन्य धर्म अध्यासरूप है।अध्यास की प्रक्रिया में विद्यमान अधिष्ठान पर भ्रान्ति से किसी अन्य वस्तु की ही कल्पना की जाती है? जैसे स्तम्भ में प्रेत का अध्यास। इस प्रकार के अध्यास में? भ्रान्त व्यक्ति स्तम्भ में वस्तुत अविद्यमान प्रेत के रूप? गुण और क्रियाओं को देखता है। यह स्तम्भ पर प्रेत के धर्म का अध्यास है। इसी प्रकार? स्वयं अविद्यमान होते हुए भी जो प्रेत उस व्यक्ति को सद्रूप अर्थात् है इस रूप में प्रतीत हो रहा होता है? उसकी सत्ता वस्तुत स्तम्भ की ही होती है। यह है स्तम्भ के अस्तित्व के धर्म का प्रेत पर आरोप। गुणों के इस परस्पर अध्यास के कारण विचित्र बात यह होती है कि व्यक्ति को मिथ्या प्रेत तो दिखाई पड़ता है? परन्तु सत्य स्तम्भ नहीं मन की यह विचित्र युक्ति अध्यास कहलाती है। शुद्ध चैतन्य में क्षेत्र का सर्वथा अभाव है। क्षेत्र की अपनी न सत्ता है और न चेतनता। परन्तु? परस्पर विचित्र संयोग से इस चराचर जगत् की उत्पत्ति हुई प्रतीत होती है।इस अध्यास के कार्य को हम अपने में ही अनुभव कर सकते हैं। विचार करने पर विविधता पूर्ण सृष्टि निवृत्त हो जाती है और हमें यह ज्ञात होता है कि ब्रह्म ही वह परम सत्य अधिष्ठान है? जिस पर प्रकृति और पुरुष की क्रीड़ा हो रही है।उदाहरणार्थ? कोई एक व्यक्ति सामान्यत शान्त प्रकृति का है। परन्तु यदाकदा उसके मन में प्रबल कामना का उदय होता है। उस कामना से तादात्म्य करने के फलस्वरूप वह व्यक्ति कामुक बनकर ऐसा निन्द्य कर्म करता है? जिसका उसे पश्चात्ताप होता है इस उदाहरण में? कामना? कामुक व्यक्ति? पश्चात्ताप इन सबका अस्तित्व उस व्यक्ति में ही निहित होता है। यद्यपि वे उसमें हैं? किन्तु वस्तुत वह उसमें नहीं होता क्योंकि? उनके बिना भी उस व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है। तथापि? उस कामना वृत्ति से तादात्म्य करके वह पश्चात्ताप के योग्य कर्मों का कर्ता बन जाता है। इसी प्रकार? आत्मा परिपूर्ण होने के कारण उसमें क्षेत्र या अनात्मा की संभावना रहती है। प्रकृति को व्यक्त कर उसके साथ तादात्म्य से वह जीवरूप पुरुष बन जाता है। यह पुरुष मिथ्या आसक्तियों के द्वारा अपने संसार को बनाये रखता है। इस स्थिति में स्वयं को मुक्त कर अपने पूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार करने का यही उपाय है कि हम आत्मा और अनात्मा का प्रमाण पूर्वक विवेक करें और प्रकृति से विलग होकर उसके कार्यों के साक्षी बनकर रहें।विवेक द्वारा प्राप्त सम्यक् दर्शन को अगले श्लोक में बताते हैं
English Translation By Swami Sivananda
13.27 Wherever a being is born, whether unmoving or moving, know thou, O best of the Bharatas (Arjuna), that it is from the union between the field and its knower.