Verse: 13,25
मूल श्लोक :
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।13.25।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.25।।कई मनुष्य ध्यानयोगके द्वारा? कई सांख्ययोगके द्वारा और कई कर्मयोगके द्वारा अपनेआपसे अपनेआपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।
।।13.25।। सर्वोपाधिविनिर्मुक्त आत्मा का शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही आध्यात्मिक साधना का अन्तिम लक्ष्य है? जिसके सम्पादन के लिए अनेक उपाय? विकल्प यहाँ बताये गये हैं। मानव का व्यक्तित्व सुगठन उसी स्थिति से प्रारम्भ होना चाहिए जहाँ वर्तमान काल में मनुष्य स्वयं को पाता है। क्रमबद्ध पाठों के बिना कोई भी शिक्षा सफल नहीं हो सकती।अत्यन्त अशुद्ध एवं चंचल मन के व्यक्ति के आत्मविकास के लिए भी अनुकूल साधन का होना आवश्यक है। पूर्णत्व के सिद्धांत को केवल बौद्धिक स्तर पर समझने से ही आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान के अनुरूप ही व्यक्ति का जीवन होने पर वास्तविक विकास संभव होता। इसलिए? अपने वैचारिकजीवन को नियन्त्रित करने तथा पुनर्शिक्षा के द्वारा उसे सही दिशा प्रदान करने में साधक को विवेक तथा उत्साह से पूर्ण सक्रिय साधना का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति को आत्मोन्नति के इस मार्ग में कठिनाई का अनुभव होता है।विभिन्न प्रकार एवं स्तर के मनुष्यों के विकास के लिए? प्राचीनकाल के महान् ऋषियों नेविभिन्न साधन मार्गों को खोज निकाला? जिन सबका साध्य एक ही है। प्रत्येक मार्ग के अनुयायी के लिए वही मार्ग सबसे उपयुक्त है। किसी एक मार्ग को अन्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है। एक औषधालय में अनेक औषधियाँ रखी होती हैं प्रत्येक औषधि किसी रोग विशेष के लिए होती है और उस रोग से पीड़ित रोगी के लिए स्वास्थ्यलाभ होने तक वही औषधि सर्वोत्तम होती है।विभिन्न साधकों में प्रतीयमान भेद उनके मानसिक सन्तुलन और बौद्धिक क्षमता के भेद के कारण होता है। शास्त्रीय भाषा में इसे अन्तकरण की अशुद्धि कहते हैं। वे सब साधन? जिनके द्वारा चित्तशुद्धि प्राप्त होती है? बहिरंग साधन या गौण साधन कहलाते हैं। चित्त के शुद्ध होने पर आत्मसाक्षात्कार का अन्तरंग या साक्षात् साधन ध्यान है।कोई पुरुष ध्यान के द्वारा आत्मा को देखते हैं ध्यान के विषय में शंकराचार्य जी लिखते हैं कि शब्दादि विषयों से श्रोत्रादि इन्द्रियों को मन में उपरत करके मन को चैतन्यस्वरूप आत्मा में एकाग्र करके चिन्तन करना ध्यान कहलाता है। इस चिन्तन में ध्येयविषयक वृत्तिप्रवाह तैलधारा के समान अखण्ड और अविरल बना रहता है। स्वाभाविक है कि यह मार्ग उन उत्तम साधकों के लिए हैं? जिनका हृदय और विवेक समान रूप से विकसित होता है।आत्मा को देखने का अर्थ नेत्रों से रूपवर्ण देखना नहीं है? अन्यथा यह तो वेदान्त के सिद्धांत का ही खंडन हो जायेगा। आत्मा तो द्रष्टा है? दृश्य नहीं। अत? आत्मदर्शन से तात्पर्य स्वस्वरूपानुभूति से है। वह अनुभव करतलामलक के दर्शन के समान स्पष्ट और सन्देह रहित होने के कारण यह कहने की प्रथा पड़ गयी कि वे आत्मा को देखते हैं।आत्मा के द्वारा आत्मा को देखते हैं शंकराचार्य जी इस भाग के भाष्य में कहते हैं ध्यान के द्वारा आत्मा में अर्थात् ध्यान से सुसंस्कृत हुए अन्तकरण के द्वारा देखते हैं। शुद्धांतकरण में ही आत्मा का स्पष्ट अनुभव होता है।किसी को इस बात पर आश्चर्य़ हो सकता है कि यहाँ बुद्धि और अन्तकरण (मन) के लिए भी आत्मा शब्द का ही प्रयोग क्यों किया गया है इसका कारण यह है कि जब साधक को अपने पारमार्थिक सत्यस्वरूप का अनुभव होता है? तब उस सत्य की दृष्टि से मन? बुद्धि आदि का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रह जाता है। सब आत्मस्वरूप ही बन जाते हैं। सभी तरंगें? फेन आदि समुद्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है। स्वप्नद्रष्टा? स्वप्न जगत् और स्वप्न के अनुभव ये सब वस्तुत जाग्रत्पुरुष का मन ही है। इसी दृष्टि से हमारे आध्यात्मिक ग्रन्थों में हमारे व्यक्तित्व के बाह्यतम पक्ष शरीरादि को भी आत्मा शब्द से निर्देशित किया गया है।उपर्युक्त ध्यानयोग का मार्ग विवेक और वैराग्य से सुसम्पन्न उत्तम अधिकारियों के ही उपयुक्त है। अत मध्यम प्रकार के साधकों के लिए उपायान्तर बताते हैं।सांख्य योग विवेक के होते हुए भी वैराग्य की कमी होने के कारण जिन साधकों का मन ध्यान में स्थिर नहीं हो पाता और उनका तादात्म्य मन में उठने वाली वृत्तियों के साथ हो जाता है? उनको सांख्य योग का अभ्यास करने को कहा गया है। क्रमबद्ध युक्तियुक्त विचार का वह मार्ग जिसके द्वारा? हम किसी निश्चित सिद्धांत पर पहुँचते हैं? जो कभी प्रमाणान्तर या युक्ति से अन्यथा सिद्ध नहीं हो सकता अर्थात् अकाट्य रहता है? सांख्य योग कहलाता है।इस साधना के अभ्यास में साधक को इस ज्ञान को दृढ़ बनाये रखना चाहिए कि मन में उठने वाली ये वृत्तियाँ सत्व? रज और तमोगुण के कार्यरूप हैं तथा दृश्य हैं मैं इनका साक्षी इन से भिन्न और नित्य हूँ। इस प्रकार? मन का ध्यान वृत्तियों से हटकर साक्षी में स्थिर हो जाने पर अन्य वृत्तियाँ स्वत लीन हो जायेंगी और निर्विकल्प आत्मा का बोधमात्र रह जायेगा।कर्मयोग जिन पुरुषों के अन्तकरण में वासनाओं की प्रचुरता होती है? वे अध्ययनरूप सांख्ययोग का पालन नहीं कर सकते हैं और उनके लिए ध्यानयोग का प्रश्न ही नहीं उठता है। ऐसे साधकों के लिए प्रथम वासना क्षय के उपाय के रूप में कर्मयोग का उपदेश दिया जाता है जिसका गीता के तीसरे अध्याय में विशद् वर्णन किया गया है। अहंकार और स्वार्थ को त्यागकर ईश्वरार्पण की भावना से कर्म करने से पूर्वसंचित वासनाओं का क्षय हो जाता है और नई वासनाएं उत्पन्न नहीं होतीं। इस प्रकार? चित्त के शुद्ध होने पर आत्मज्ञान की जिज्ञासा जागृत होने पर वह व्यक्ति शास्त्राध्ययन के (सांख्य योग) योग्य बन जाता है। तत्पश्चात् विवेक और वैराग्य के दृढ़ होने पर ध्यान योग के द्वारा अध्यात्म साधना के सर्वोच्च शिखर ब्रह्मात्मैक्यबोध को प्राप्त हो जाता है।संक्षेप में? सत्त्वगुणप्रधान व्यक्ति के लिए ध्यानयोग उपयुक्त है। रजोगुण का आधिक्य और सत्त्वगुण की न्यूनता से युक्त पुरुष के लिए सांख्य योग है और सर्वथा रजोगुण प्रधान पुरुष के लिए कर्मयोग का साधन है।तब फिर? तमोगुण प्रधान अर्थात् जिसमें विचारशक्ति का अभाव हो? ऐसे व्यक्ति के लिए कौन सा उपाय है भगवान् बताते हैं कि
English Translation By Swami Sivananda
13.25 Some by meditation behold the Self in the self by the self, others by the Yoga of knowledge, and still others by the Yoga of action.