Verse: 13,21
मूल श्लोक :
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।13.21।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.21।।प्रकृति और पुरुष -- दोनोंको ही तुम अनादि समझो और विकारों तथा गुणोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न समझो। कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुखदुःखोंके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा जाता है।
।।13.21।। कार्य और कारण के कर्तृत्व में हेतु प्रकृति है यहाँ प्रयुक्त कार्य शब्द से ये तेरह तत्त्व सूचित किये गये हैं पंचमहाभूत? पंच ज्ञानेन्द्रियाँ? मन? बुद्धि और अहंकार। समष्टि पंचतत्त्वों के जो शब्द स्पर्शादि पंच गुण हैं? वे ही व्यष्टि में पंच ज्ञानेन्द्रियों के रूप में स्थित हैं। इसका विवेचन हम पूर्व में भी कर चुके हैं।पाँचो इन्द्रियाँ भिन्नभिन्न विषय ग्रहण करती हैं? जिनका एकत्रीकरण करना मन का कार्य है। तत्पश्चात् अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए एक ऐसे तत्त्व की आवश्यकता होती है? जो ग्रहण किये गये विषय के स्वरूप को समझकर अपनी प्रतिक्रिया को निश्चित करे। और वह तत्त्व है बुद्धि। अब? इन सब क्रियाओं विषय ग्रहण? उनके एकत्रीकरण और निर्णय में एक अहंभाव सतत बना रहता है? जैसे मैं देखता हूँ? मैं निर्णय लेता हूँ इत्यादि। यह अहंभाव ही अहंकार कहलाता है? जो आत्मा के इन इन्द्रियादि उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण उत्पन्न होता है। ये तेरह तत्त्व यहाँ कार्य शब्द से सूचित किये गये हैं।यह सम्पूर्ण कार्य जगत् व्यक्त है? और इनका अव्यक्त रूप ही कारण कहलाता है। ये कार्य और कारण प्रकृति ही हैं।पुरुष सुखदुख का भोक्ता है जो चेतन तत्त्व इस कार्यकारण रूप प्रकृति को प्रकाशित करता है? वह आत्मा या पुरुष है।यहाँ आत्मा को पुरुष के रूप में सुखदुख का भोक्ता कहा गया है? वह उसका औपाधिक रूप है? वास्तविक नहीं। सुख और दुख हमारे मन की प्रतिक्रियायें हैं। अनुकूल परस्थितियों में इष्ट की प्राप्ति होने पर सुख और अनिष्ट की प्राप्ति से दुख होता है। प्रत्येक अनुभव उसके अन्तिम विश्लेषण में सुख या दुख के रूप में ही निश्चित किया जाता है। चैतन्य ही इन सब अनुभवों को प्रकाशित करता है? जिसके बिना अनुभवधारा रूप यह जीवन ही सम्भव नहीं हो सकता है। इसलिए? यहाँ कहा गया है कि पुरुष सुखदुख के भोग का हेतु है। क्षेत्र की उपाधि में क्षेत्रज्ञ के रूप में कार्य कर रहा आत्मा ही संसार का भोक्ता बनता है। जो व्यक्ति सूर्य की प्रखर धूप में खड़ा रहेगा उसे सूर्य का ताप सहन करना होगा? यदि वह व्यक्ति सघन छाया में चला जाता है? तो उसे शीतलता का आनन्दानुभव होगा।इस श्लोक में पुरुष को सुखदुखरूप संसार का भोक्ता कहा गया है। इस संसार का कारण क्या है उत्तर में भगवाने कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
13.21 In the production of the effect and the cause, Nature (matter) is said to be the cause; in the experience of pleasure and pain, the soul is said to be the cause.