Verse: 13,20
मूल श्लोक :
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।13.20।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.20।।प्रकृति और पुरुष -- दोनोंको ही तुम अनादि समझो और विकारों तथा गुणोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न समझो। कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुखदुःखोंके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा जाता है।
।।13.20।। इसके पूर्व सातवें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी दो प्रकृतियों अपरा और परा का वर्णन करते हुए कहा था कि ये दोनों प्रकृतियाँ ही सृष्टि की योनि अर्थात् कारण हैं। इन दोनों का ही निर्देश यहाँ क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के रूप में किया गया है।उक्त विचार को ही दूसरी शब्दावली में बताते हुए भगवान् कहते हैं कि प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) दोनों ही अनादि हैं। ये दोनों ही परमात्मा के ही दो रूप हैं। परमेश्वर नित्य है? इसलिए उसके इन दो रूपों का भी अनादि होना? उचित ही है। प्रकृति और पुरुष ही परस्पर सम्बन्ध के द्वारा इस जगत् की उत्पत्ति? स्थिति और लय के कारण हैं। इस प्रकार? यद्यपि संसार के कारण ये दोनों हैं? तथापि इनका अधिष्ठान ज्योतियों की ज्योतिस्वरूप ब्रह्म ही है।भगवान् आगे कहते हैं कि समस्त देह? इन्द्रिय? मन और बुद्धि ये विकार और सुखदुख? मोहादिक ये गुण जिनका वर्णन गीता में ही आगे किया जाने वाला है प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और आत्मा स्वयं अविकारी रहते हुए इन विकारों को प्रकाशित करता है।प्रकृति से उत्पन्न वे गुण और विकार क्या हैं सुनो
English Translation By Swami Sivananda
13.20 Know thou that Nature (matter) and the Spirit are both beginningless; and know also that all modifications and alities are born of Nature.