Verse: 13,2
मूल श्लोक :
श्री भगवानुवाचइदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.2।।श्रीभगवान् बोले -- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन यह -- रूपसे कहे जानेवाले शरीरको क्षेत्र कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है? उसको ज्ञानीलोग क्षेत्रज्ञ नामसे कहते हैं।
।।13.2।। पूर्णत्व का अनुभव आत्मरूप से होता है? न कि दृश्य रूप से। हिन्दू ऋषियों का इस विषय में एकमत है कि अन्तर्मुखी होकर आत्मविचार करना ही आत्मबोध तथा उसके साक्षात् अनुभव का साधन मार्ग है। इस अध्याय में आत्मा और उसकी उपाधियों का सुन्दर दार्शनिक पद्धति से विभाजन किया गया है। आत्मानात्मविवेक जनित बोध ही साधक को दर्शायेगा कि किस प्रकार पारमर्थिक सत्य की दृष्टि से जड़ अनात्मा का आत्यन्तिक (सर्वथा) अभाव है।जाग्रत पुरुष ही अपनी किसी एक विशेष मनस्थिति से स्वप्नद्रष्टा बन जाता है? और जब तक स्वप्न बना रहता है तब तक उस स्वप्नद्रष्टा के लिये वह अत्यन्त सत्य प्रतीत होता है। परन्तु जाग जाने पर उस स्वप्न का अभाव हो जाता है? और जाग्रत् पुरुष यह जानता है कि वह स्वप्न उसके ही मन का विभ्रम मात्र था। इसी प्रकार आत्मानुभूति की वास्तविक जागृति में इस दृश्य प्रपंच का अभाव होता है। साधक अपने आत्मस्वरूप से ही आत्मा का अनुभव करता है? जिसमें इस छायारूप जगत् का कोई अस्तित्व ही नहीं है।इस प्रकार? वेदान्त दर्शन के अनुसार विचार करने पर ज्ञात होता है कि समस्त प्राणी दो तत्त्वों से बने हैं। एक तत्त्व है जड़अचेतन और दूसरा है चेतन तत्त्व। प्रस्तुत श्लोक में इन दोनों को परिभाषित किया गया है।यह शरीर क्षेत्र कहलाता है इस यान्त्रिक युग में यह समझना सरल है कि ऊर्जा को व्यक्त होने अथवा कार्य करने के लिए उपयुक्त क्षेत्र की आवश्यकता होती है। तभी वह व्यक्त होकर मानव की सेवा कर सकती है।इंजन के बिना वाष्पशक्ति तथा पंखे के बिना विद्युत् शक्ति हमें क्रमश गति और मन्द समीर प्रदान नहीं कर सकती। इसी प्रकार? जिन शरीरादि उपाधियों के माध्यम से आत्मचैतन्य व्यक्त होता है? उन्हें ही यहाँ क्षेत्र कहा गया है।इसको जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं यह क्षेत्र जड़ पदार्थों से बना हुआ है। तथापि? इसमें चैतन्य की अभिव्यक्ति होने से यह कार्य करता है और विषयों को जानता है। वास्तव में? यह चेतन तत्त्व जो इन उपाधियों से व्यक्त होकर विषयों को प्रकाशित कर रहा है वह क्षेत्रज्ञ है। शास्त्रीय भाषा में कहेंगे कि उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ही क्षेत्रज्ञ अथवा जीव कहलाता है।जब तक जीव शरीर धारण किये रहता है? उसकी उपस्थिति जानने की प्रवृत्ति से स्पष्ट ज्ञात होती है। इस जिज्ञासा की प्रवृत्ति की मात्रा विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तारतम्य में हो सकती है। परन्तु? इसके व्यक्त होने को ही हम जीवन का लक्षण मानते हैं। प्राणी की विषय ग्रहण की तथा उनके प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करने की क्षमता ही जीवन का व्यवहार है? और जब यह ज्ञाता? शरीर का त्याग करके चला जाता है तब हम उस शरीर को मृत घोषित करते हैं। यह ज्ञाता ही क्षेत्रज्ञ है।तद्विद (तत्त्वज्ञजन) यहाँ? भगवान् श्रीकृष्ण हमें आश्वस्त करते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की ये परिभाषाएं उनकी स्वच्छन्द घोषणा नहीं हैं और न ही ये केवल परिकल्पित अनुमान है? अपितु स्वयं ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों द्वारा ही ये प्रमाणित की गई हैं। संक्षेप में? संपूर्ण जड़ जगत् क्षेत्र है? और चैतन्य स्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहा जाता है।क्या इस विषय में केवल इतना ही जानना है नहीं? आगे सुनो
English Translation By Swami Sivananda
13.2 The Blessed Lord said This body, O Arjuna, is called the field; he who knows it is called the knower of the field, by those who know of them.