Verse: 13,17
मूल श्लोक :
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।13.17।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.17।।वे परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें विभक्तकी तरह स्थित हैं। वे जाननेयोग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले? उनका भरणपोषण करनेवाले और संहार करनेवाले हैं।
।।13.17।। यद्यपि विद्युत् सर्वत्र विद्यमान है? तथापि प्रकाश के रूप में वह केवल बल्ब में ही प्रकट होती है। उसी प्रकार आत्मा सर्वगत होते हुए भी जहाँ उपाधियाँ हैं वहीं पर विशेष रूप से प्रकट होता है। एक ही व्यापक आकाश घट और मठ की उपाधियों से घटाकाश और मठाकाश के रूप में प्रतीत होता है।पूर्व के अध्यायों में भी अनेक स्थलों पर वर्णन किया जा चुका है कि किस प्रकार विश्वाधिष्ठान परमात्मा विश्व की उत्पत्ति? स्थिति और संहार का कर्ता है। यहाँ मिट्टी? स्वर्ण? समुद्र और जाग्रतअवस्था के मन के दृष्टान्त स्मरणीय हैं? जो क्रमश घट? आभूषण? तरंग और स्वप्न की उत्पत्ति? स्थिति और लय के कारण होते हैं।यह ज्ञेय वस्तु है। प्रस्तुत प्रकरण के श्लोकों में उस ज्ञेय वस्तु का निर्देशात्मक वर्णन किया गया है? जिसे आत्मरूप से जानने के लिए अमानित्वादि गुणों के पालन से अन्तकरण को सुपात्र बनाने का उपदेश दिया गया था।आत्मतत्त्व हमारे अन्तर्बाह्य सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी यदि अनुभव का विषय नहीं बनता हो? तो वह अन्धकारस्वरूप होगा। ऐसी शंका प्राप्त होने पर कहते हैं कि ऐसा नहीं है? क्योंकि
English Translation By Swami Sivananda
13.17 And undivided, yet It exists as if divided in beings; It is to be known as the supporter of being; It devours and It generates.