Verse: 13,10
मूल श्लोक :
असक्ितरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।13.10।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।13.10।।आसक्तिरहित होना पुत्र? स्त्री? घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलताप्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना।
।।13.10।। असक्ति अर्जित की हुयी वस्तुओं से होने वाली सामान्य प्रीति को सक्ति अर्थात् संग कहते हैं। उसका अभाव असक्ति कहलाता है। हमें जो दुख होता है? वह विषयों के कारण नहीं? हमारे उसके साथ के मानसिक संग के कारण होता है। जैसै? अग्नि स्वयं किसी को नहीं जला सकती? जब तक कि कोई उसे स्पर्श न करे।पुत्र? भार्या और गृहादिक में अनभिष्वंग अति स्नेह को अभिष्वंग कहते हैं। अत उसका अभाव ही अनभिष्वंग कहलाता है। जब किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति सामान्य प्रीति बढ़कर आसक्ति का रूप ले लेती है? तब उसे अभिष्वंग कहते हैं। इस आसक्ति का लक्षण है यह है कि मनुष्य को अपनी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के साथ इतना तादात्म्य हो जाता है कि उनके सुखदुख उसे अपने ही अनुभव होते हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण है पुत्र के प्रति माता की आसक्ति का। इस प्रकार की आसक्ति के कारण व्यक्ति के मन में सदा विक्षेप बना रहता है और वह कार्य करने में भी अकुशल हो जाता है।हमें अपने आन्तरिक व्यक्तित्व के चारों ओर विवेक की ऐसी दीवार खड़ी करनी चाहिये कि ये सभी विक्षेप हमसे दूर रहें और मन का सन्तुलन सदा बना रहे जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति या समृद्धि कदापि संभव नहीं होती।प्रिय और अप्रिय परिस्थितियों में चित्त की समता को सतत अभ्यास करते रहने से प्राप्त किया जा सकता है। यदि मनुष्य अपनी मूढ़ प्रीति और आसक्ति के बन्धनों से मुक्त हो जाये? तो उसे अपने में ही अतिरिक्त शक्ति का भण्डार प्राप्त होता है? जिसका उसे सही दिशा में सदुपयोग करना चाहिये? अन्यथा वही शक्ति आत्मघातक सिद्ध हो सकती है।वह सही दिशा क्या है इसे अगले श्लोक में बताते हैं
English Translation By Swami Sivananda
13.10 Non-attachment, non-identification of the Self with son, wife, home and the rest, and constant even-mindedness on the attainment of the desirable and the undesirable.