Verse: 12,20
मूल श्लोक :
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।12.20।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।12.20।।जो मेरेमें श्रद्धा रखनेवाले और मेरे परायण हुए भक्त पहले कहे हुए इस धर्ममय अमृतका अच्छी तरहसे सेवन करते हैं? वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
।।12.20।। यथोक्त अमृत धर्म उपर्युक्त पंक्तियों में सनातन धर्म का सार दिया गया है। वस्तुत हिन्दू धर्म के अनुयायियों के जीवन का लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार करके उसे जीवन को अपने व्यक्तित्व के सभी स्तरों शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक पर जीने का है। उसके लिये केवल इतना पर्याप्त नहीं है कि वह इस ज्ञान को बौद्धिक स्तर पर समझता है अथवा नियमित रूप से शास्त्रग्रन्थ का पाठ करता है? या उन्हें अच्छी प्रकार दूसरों को समझा भी सकता है। उसे चाहिए कि वह शास्त्रीय ज्ञान को आत्मसात् करके स्वयं पूर्ण पुरुष बन जाये। इसलिए? भगवान् कहते हैं कि उसे श्रद्धावान् होना चाहिए यहाँ श्रद्धा शब्द का अर्थ है स्वयं के अनुभव के द्वारा शास्त्र प्रतिपादित आत्मज्ञान्ा को आत्मसात् करने की क्षमता।ऐसे भक्त मुझे अतिशय प्रिय हैं इस श्लोक के साथ भक्त के लक्षणों का वर्णन करने वाले इस प्रकरण का षष्ठ भाग तथा यह अध्याय भी समाप्त होता है। यद्यपि इसमें और कोई नया लक्षण नहीं बताया गया है? तथपि इसमें भगवान् का समस्त साधकों को दिया हुआ पुनराश्वासन है कि उक्त गुणों से सम्पन्न साधकों को भगवान् की परा भक्ति प्राप्त होगी।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुन संवादे भक्तियोगोनाम द्वादशोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का भक्तियोग नामक बारहवां अध्याय समाप्त होता है।
English Translation By Swami Sivananda
12.20 They verily who follow this immortal Dharma (law or doctrine) as described above, endowed with faith, regarding Me as their supreme goal, they, the devotees, are exceedingly dear to Me.