Verse: 12,16
मूल श्लोक :
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.16।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।12.16।।जो आकाङ्क्षासे रहित? बाहरभीतरसे पवित्र? दक्ष? उदासीन? व्यथासे रहित और सभी आरम्भोंका अर्थात् नयेनये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है? वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
।।12.16।। यह तीसरा भाग है। ज्ञानी भक्त के चरित्र पर यह श्लोक और अधिक प्रकाश डालता है। पूर्व के दो भागों में उसके चौदह लक्षण बताये जा चुके हैं? और अब इन छ गुणों को बताकर भक्त के चित्र को और अधिक स्पष्ट किया जा रहा है।जो अनपेक्ष (अपेक्षारहित) है सामान्य पुरुष अपने सुख और शान्ति के लिए बाह्य देश? काल? वस्तु ? व्यक्ति और परिस्थितियों पर आश्रित होता है। इनमें से प्रिय की प्राप्ति होने पर वह क्षण भर रोमांचित कर देने वाले हर्षोल्लास का अनुभव करता है। परन्तु एक सच्चा भक्त अपने सुख के लिए बाह्य जगत् की अपेक्षा नहीं रखता? क्योंकि उसकी प्रेरणा? समता और प्रसन्नता का स्रोत हृदयस्थ आत्मा ही होता है।जो शुचि अर्थात् शुद्ध है एक सच्चा भक्त शारीरिक शुद्धि तथा उसी प्रकार आन्तरिक शुद्धि से भी सम्पन्न होता है। जो भक्त साधक की स्थिति में भी शरीर मन और जगत् के साथ अपने सम्बन्धों में शुद्धि रखने के प्रति जागरूक रहता है वही फिर सिद्ध भक्त शुचि को प्राप्त होता है। यह एक सुविदित तथ्य है कि कोई पुरुष जिस वातावरण में रहता है? उसे देखकर तथा उसकी वस्तुओं? वस्त्रों आदि की दशा देखकर उस पुरुष के स्वभाव? अनुशासन तथा संस्कृति का अनुमान किया जा सकता है। शारीरिक शुचिता तथा व्यवहार में भी पवित्रता रखने पर भारत में अत्यधिक बल दिया गया है। बाह्य शुद्धि के बिना आन्तरिक शुद्धि मात्र दिवास्वप्न? या व्यर्थ की आशा ही सिद्ध होगी।दक्ष (कुशल) सदा सजगता तो सुगठित पुरुष का स्वभाव ही बन जाता है। किसी भी कार्य़ की सफलता की कुंजी उत्साह है। कुशल और समर्थ व्यक्ति वह नहीं है जो अपने व्यवहार और कार्य में त्रुटियां करता रहता है। दक्ष भक्त मन से सजग और बुद्धि से समर्थ होता है। उसमें मन की शक्ति का अपव्यय नहीं होता अत एक बार किसी कार्य का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लेने के पश्चात् वह उस कार्य का सिद्धि के लिए सदा तत्पर रहता है। जैसा कि हम देख रहे हैं? यदि धार्मिक कहे जाने वाले लोग अपने कार्य में आलसी? असावधान और अशिष्ट हो गये हैं? तो हम समझ सकते हैं कि हिन्दू धर्म अपने प्राचीन वैभव से कितना दूर भटक गया है।उदासीन समाज में ऐसे अनेक भक्त कहे जाने वाले लोगों का मिलना कठिन नहीं हैं? जिन्होंने अपने आप को एक अनभिव्यक्त दुखपूर्ण स्थिति में समर्पित कर दिया है और उसका कारण केवल यह है कि किसी ने उसके साथ विश्वासघात अथवा दुर्व्यवहार किया था। ऐसे मूढ़ भक्त सोचते हैं कि समाज के इन अपराधों के प्रति वे उदासीन रहेंगे। बाद में उनकी भक्ति ही उन्हें एक दुर्भाग्यपूर्ण दायित्व प्रतीत होने लगती है? न कि एक वास्तविक लाभ दर्शनशास्त्र को विपरीत समझने पर उसकी समाप्ति समाज के आत्मघात में ही होती है।उदासीन भाव का प्रयोजन केवल अपने मन की शक्तियों का अपव्यय रोकने के लिए ही है। मनुष्य के जीवन में? छोटीछोटी कठिनाइयाँ? सामान्य बीमारियां सुखसुविधा का अभाव आदि का होना तो स्वाभाविक और सामान्य बात है। उनको ही अत्यधिक महत्व देना और उनकी निवृत्ति के लिए दिन रात प्रयत्न करते रहने का अर्थ जीवन भर परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के संघर्ष में ही डूबे रहना है। यहाँ साधक को यह उपदेश दिया गया है कि जीवन की इन साधारण परिस्थितियों में वह अपनी मानसिक शक्ति को व्यर्थ ही नहीं खोने दे? बल्कि इन घटनाओं में उदासीन भाव से रहकर शक्ति का संचय करे। छोटेमोटे दुख और कष्ट अनित्य होने के कारण स्व्ात ही निवृत्त हो जाते हैं? अत उनके लिए चिन्ता और संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है।व्यथारहित (भयरहित) जब मनुष्य किसी वस्तु विशेष की कामना से अभिभूत हो जाता है? तब उसे मन में यह भय लगा रहता है कि कहीं उसकी इच्छा अतृप्त ही न रह जाये। परन्तु ज्ञानी भक्त सब कामनाओं से मुक्त होने के कारण निर्भय होता है।सर्वारम्भ परित्यागी संस्कृत में आरम्भ शब्द का अर्थ कर्म भी होता है। अत सर्वारम्भ परित्यागी शब्द का अर्थ कोई यह नहीं समझे कि भक्त वह है? जो सब कर्मों का त्याग कर देता है इस प्रकार के शाब्दिक अर्थ के कारण बहुसंख्यक हिन्दू लोग कर्म करने में अकुशल और आलसी हो गये हैं। इन लोगों को देखकर ही अन्य लोग हमारी आलोचना करते हुए कहते हैं कि हिन्दू धर्म में आलस्य को ही दैवी आदर्श के रूप में गौरवान्वित किया गया है परन्तु यह अनुचित है? क्योंकि इस शब्द के आशय की सर्वथा उपेक्षा की गयी है। यदि कोई व्यक्ति किसी कर्म में निश्चित प्रारम्भ देखता है? तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह स्वयं को उस कर्म का आरम्भकर्ता मानता है। उसके मन में यह भाव दृढ़ होना चाहिए कि उसने ही यह कर्म विशेष किसी विशेष फल को प्राप्त करने के लिए प्रारम्भ किया है? जिसे प्राप्त कर वह कोई निश्चित लाभ या सुख प्राप्त करेगा। जो पुरुष भगवान् का भक्त है? और सांस्कृतिक पूर्णत्व को प्राप्त करना चाहता है? उसको इस प्रकार के मान और कर्तृत्व के अभिमान को सर्वथा त्याग कर निरहंकार भाव से जगत् में कर्म करने चाहिए।वास्तविकता यह है कि हमारे जीवन में कोई भी कर्म नया नहीं है? जिसका अपना स्वतन्त्र प्रारम्भ और समाप्ति हो। सम्पूर्ण जगत् के सनातन कर्म व्यापार में ही सभी कर्मों का समावेश हो जाता है। यदि भलीभांति विचार किया जाये तो ज्ञात होगा कि हमारे सभी कर्म जगत् में उपलब्ध वस्तुओं और स्थितियों से नियन्त्रित? नियमित? शासित और प्रेरित होते हैं। ईश्वर के भक्त को विश्व की इस एकता का सदैव भान बना रहता है? और इसलिए? वह जगत् में सदा ईश्वर के हाथों में एक करण या निमित्त के रूप में कर्म करता है? न कि किसी कर्म के स्वतन्त्र कर्ता के रूप में।उपर्युक्त सद्गुणों से सम्पन्न भक्त मुझे प्रिय है। भक्त के कुछ और लक्षण बताते हुए भगवान् कहते हैं
English Translation By Swami Sivananda
12.16 He who is free from wants, pure, expert, unconcerned, and free from pain, renouncing all undertakings or commencements he who is (thus) devoted to Me, is dear to Me.