Verse: 11,5
मूल श्लोक :
श्री भगवानुवाचपश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।11.5।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।11.5।।श्रीभगवान् बोले -- हे पृथानन्दन अब मेरे अनेक तरहके? अनेक वर्णों और आकृतियोंवाले सैकड़ोंहजारों दिव्यरूपोंको तू देख।
।।11.5।। यदि समस्त आभूषण का मूल तत्त्व स्वर्ण है? तो विश्व का प्रत्येक आभूषण समष्टि स्वर्ण में उपलब्ध होना चाहिए। आभूषण में स्वर्ण को देखना अपेक्षत सरल है? क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा किया जाने वाला दर्शन? है अर्थात् वह इन्द्रियगोचर है। परन्तु नाना आकार प्रकार तथा वर्णों के समस्त आभूषणों को समष्टि स्वर्ण में देख पाना अधिक कठिन है? क्योंकि वह बुद्धि द्वारा दिया जाने वाला दर्शन है अर्थात बुद्धिगम्य दर्शन है।इस बात को ध्यान में रखकर भगवान् के कथन को पढ़ने पर उनका अभिप्राय स्वत स्पष्ट हो जाता है। मेरे शतश और सहस्रश नाना प्रकार आकार तथा वर्णों के अलौकिक रूपों को देखो। भगवान् श्रीकृष्ण को अपना विराट् स्वरूप धारण करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि अर्जुन को केवल इतना ही करना था कि अपने समक्ष स्थित रूप को वह देखे। परन्तु दुर्भाग्य से? द्रष्टव्य रूप को देखने के लिए उपयुक्त दर्शन का उपकरण उसके पास नहीं था? और इसलिए? अर्जुन उन सबको नहीं देख सका? जो भगवान् श्रीकृष्ण में पहले से ही विद्यमान था।सुदूर स्थित कोई नक्षत्र या किसी अन्य वस्तु को देखने के लिए दूरदर्शी यन्त्र का उपयोग किया जाता है। परन्तु उस यन्त्र की अक्षरेखा पर होने मात्र से वह वस्तु दिखाई नहीं दे सकती। उसे देखने के लिये दूरदर्शी यन्त्र को समायोजित करना पड़ता है? जिससे कि वह वस्तु सूक्ष्म निरीक्षक के दृष्टिपथ में आ जाये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं को विराट् रूप में परिवर्तित नहीं किया? परन्तु अर्जुन को केवल आन्तरिक समायोजन करने में सहायता प्रदान की जिससे कि वह भगवान् श्रीकृष्ण में विद्यमान विश्वरूप का अवलोकन कर सके। इसीलिये? भगवान् कहतें हैं कि? देखो। वे इस श्लोक में उन दर्शनीय वस्तुओं को गिनाते हैं।वे दिव्य रूप कौनसे हैं अगले श्लोक में बताते हैं
English Translation By Swami Sivananda
11.5 The Blessed Lord said Behold, O Arjuna, forms of Mine, by the hundreds and thousands, of different sorts, divine, and of various colours and shapes.