Verse: 11,34
मूल श्लोक :
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथाऽन्यानपि योधवीरान्।मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।11.34।।द्रोण? भीष्म? जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मारो। तुम व्यथा मत करो और युद्ध करो। युद्धमें तुम निःसन्देह वैरियोंको जीतोगे।
।।11.34।। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को सीधे और स्पष्ट शब्दों में आश्वस्त करते हैं कि उसको उठ खड़े होकर काल के आश्रय से सफलता और वैभव को प्राप्त करना चाहिए। अधर्मियों की शक्ति और सार्मथ्य कितनी ही अधिक क्यों न हो? लोक क्षयकारी महाकाल की शक्ति ने पहले ही उन्हें मार दिया है। अर्जुन को केवल आगे बढ़कर एक वीर पुरुष की भूमिका निभाते हुए विजय के मुकुट को प्राप्त कर लेना है। हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं? तुम केवल निमित्त बनो।वस्तुत? प्रत्येक विचारशील पुरुष को इस तथ्य का स्पष्ट ज्ञान होता है कि जीवन में वह ईश्वर के हाथों में केवल एक निमित्त ही है। परन्तु? सामान्यत हम इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते? क्योंकि हमारा गर्वभरा अभिमान इतनी सरलता से निवृत्त नहीं होता कि हमारा शुद्ध दिव्य स्वरूप अपनी सर्वशक्ति से हमारे द्वारा कार्य कर सके। जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में प्राप्त की गयी उपलब्धियों पर यदि हम विचार करें? तो हमें ज्ञात होगा कि प्रत्येक उपलब्धि में प्रकृति के योगदान की तुलना में हमारा योगदान अत्यन्त क्षुद्र और नगण्य है। अधिकसेअधिक हम केवल उन वस्तुओं का संयोग या मिश्रण ही कर सकते हैं? जो पहले से ही विद्यमान हैं? और इस संयोग के फलस्वरूप उनमें पूर्व निहित गुणों को व्यक्त करा सकते हैं। फिर भी हमारा अभिमान यह होता है कि हमने उस फल को उत्पन्न किया हैरेडियो? वायुयान? इंजिन? जीवन संरक्षक औषधयां? संक्षेप में? यह सम्पूर्ण नवीन जगत्? और प्रगति में इसकी उपलब्धियां ये सब ईश्वर की गोद में बैठे बच्चों के खेल के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। ईश्वर ने ही हमारे लिए विद्युत्? लोहा? आकाश? वायु इत्यादि उपलब्ध कराये और हमें उसका उपयोग करने के लिए स्वीकृति और स्वतन्त्रता प्रदान की। इन मूलभूत वस्तुओं के बिना कोई भी उपलब्धि संभव नहीं हो सकती और उपलब्धि का अर्थ है? ईश्वर प्रदत्त वस्तुओं का बुद्धिमत्तापूर्वक समायोजन करना।शरणागति तथा ईश्वर का अखण्ड स्मरण करते हुए जगत् की सेवा करने के सिद्धांतों को ऐसी व्यर्थ की कल्पनाएं नहीं समझना चाहिए जो जगत् की भौतिक सत्यता से पलायन करने के लिए विधान की गयी हों। जगत् में कुशलतापूर्वक कार्य करके सफलता पाने के लिए मनुष्य़ को अपनी योग्यता और स्वभाव को ऊँचा उठाना आवश्यक है। अखण्ड ईश्वर स्मरण वह साधन है? जिसके द्वारा हम अपने मन को सदा अथक उत्साह और आनन्दपूर्ण प्रेरणा के भाव में रख सकते हैं।अहंकारी के लिए यह जगत् एक बोझ या समस्या बना होता है। जिस सीमा तक अहंकार स्वयं को किसी महान् और श्रेष्ठ आदर्श के प्रति समर्पित कर देता है? उसी सीमा में यह जगत् और उसकी उपलब्धियां प्राप्त करना सरल और निश्चित सफलता का खेल बन जाता है। इसके पूर्व भी गीता में अनेक स्थलों पर स्पष्टत सूचित किया गया है कि अहंकार के समर्पण से हममें स्थित महानतर क्षमताओं को व्यक्त किया जा सकता है। उसी विचार को यहाँ दोहराया गया है। सम्पूर्ण सेना को यहाँ अपनी वीरता की भूमिका निभाने के लिए आमन्त्रित किया गया है। ईश्वर के हाथों में वे निमित्त बने और राजमुकुट तथा वैभव को वेतन के रूप में प्राप्त करें। अर्जुन को कौरव पक्ष के कुछ प्रधान और श्रेष्ठ पुरुषों से विशेष भय था। यहाँ भगवान् उनका नामोल्लेख करके बताते हैं कि ये वीर पुरुष भी सर्वभक्षक काल के द्वारा मारे जा चुके हैं।द्रोणाचार्य अर्जुन के गुरु थे? जिन्होंने उसे धनुर्विद्या सिखायी थी। उसके पास कुछ विशेष शस्त्रास्त्र थे और अर्जुन उनका विशेष रूप से आदर और सम्मान करता था। भीष्मपितामह को स्वेच्छा से मरण प्राप्ति का वरदान मिला हुआ था? तथा उनके पास भी अत्यन्त शक्तिशाली दिव्यास्त्र थे। एक बार उन्होंने वीर परशुराम तक को धूल चटा दी थी। जयद्रथ की अजेयता का कारण उसके पिता द्वारा किया जा रहा तप था। उन्होंने यह दृढ़ निश्चय किया था कि जो कोई भी व्यक्ति मेरे पुत्र जयद्रथ का शिर पृथ्वी पर गिरायेगा? उस व्यक्ति का शिर भी नीचे गिर पड़ेगा। कर्ण से भय का कारण यह था कि उसे भी इन्द्र से दिव्यास्त्र प्राप्त हुआ था। उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट होता है कि भगवान् ने इन चारों पुरुषों का ही विशेषत उल्लेख क्यों किया है। ये महारथी लोग भी काल का ग्रास बन चुके थे? अत अर्जुन को चाहिए कि वह राजसिंहासन की ओर अग्रसर हो और सम्पूर्ण वैभव का स्वामी बन जाये।यह स्वाभाविक है कि जब मनुष्य की किसी तीव्र इच्छा को पूर्ण कर दिया जाता है? तो वह अकस्मात् अपने दयालु संरक्षक की स्तुति और प्रशंसा करने लगता है
English Translation By Swami Sivananda
11.34 Drona, Bhishma, Jayadratha, Karna and other brave warriors these are already slain by Me: do thou kill; be not distressed with fear; fight and thou shalt coner thy enemies in battle.