Verse: 10,40
मूल श्लोक :
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।10.40।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।10.40।।हे परंतप अर्जुन मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियोंका जो विस्तार कहा है? यह तो केवल संक्षेपसे कहा है।
।।10.40।। मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है अपनी विभूतियों के वर्णन के प्रारम्भ में ही भगवान् श्रीकृष्ण ने इस विशाल कार्य को सम्पन्न करने में भाषा की असमर्थता प्रकट की था। किन्तु? फिर भी? शिष्य के लिए केवल स्नेहवश भगवान् श्रीकृष्ण ने इस असम्भव कार्य को यथासम्भव सम्पन्न करने के लिए अपने हाथों में लिया। कोई भी घटकार किसी भी जिज्ञासु व्यक्ति को समस्त घटों में व्याप्त उनके सारतत्त्व मिट्टी को नहीं दर्शा सकता और न अन्त में यह कहकर स्वयं का अभिनन्दन कर सकता है कि उसने समस्त भूत? वर्तमान और भविष्य के घटों को बता दिया है। ऐसा करना न सम्भव है और न आवश्यक ही। योग्य अधिकारी पुरुष को कुछ वस्तुएं दिखाकर उनके स्ाारतत्त्व का ज्ञान करा दिया जाये? तो वह पुरुष उसी तत्त्व की अन्य वस्तुओं को देखकर उस तत्त्व को पहचान सकता है।इस अध्याय में? भगवान् ने अर्जुन को तथा उसके निमित्त से समस्त भावी पीढ़ियों के जिज्ञासुओं के लिए? इन 54 विभूतियों के द्वारा? असंख्य उपाधियों के आवरण या परिधान में गुप्त वास कर रहे? अनन्त परमात्मा की क्रीड़ा को दर्शाया है। जो साधक इन विभूतियों का ध्यान करके अपने मन को पूर्णत प्रशिक्षित कर लेगा? वह इस बहुविध सृष्टि के पीछे स्थित एक अनन्त परमात्मा को सरलता से सर्वत्र पहचानेगा।दृश्य जगत् की अनन्त विभूतियों के विस्तार का वर्णन करने में अपनी असमर्थता को व्यक्त करते हुए भगवान् कहते हैं? सूर्यस्थानीय मुझ स्वयंप्रकाश? स्वस्वरूप की पूर्णता में स्थित परमात्मा की असंख्य रश्मिरूपी विभूतियों का कोई अन्त नहीं है।यदि भगवान् श्रीकृष्ण इस असमर्थता को पहले से जानते थे? तो क्यों उन्होंने एक गुरु होने के नाते? व्यर्थ ही अपने शिष्य को अपनी विभूतियों के द्वारा स्वयं का दर्शन कराने का आश्वासन दिया यह ऐसा छल भगवान् ने क्यों किया दीर्घ काल तक शिष्य को थकाकर अन्त में उसे निराश करना क्या उचित है क्या यह सभी धार्मिक गुरुओं? ऋषियों और मुनियों का सामान्य स्वभाव ही हैआध्यात्मिक साधनाओं पर लगाये जाने वाले इन सभी आरोपों का केवल एक ही उत्तर है कि इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। शल्य चिकित्सा के विद्यार्थियों को? सर्वप्रथम एक सप्ताह के मृत देह पर शल्यक्रिया करने को कहा जाता है यह कोई असत्य नहीं है यह सत्य है कि कितनी ही कुशलता से शल्यक्रिया करने पर भी वह मृत रोगी पुनर्जीवित होने वाला नहीं है? परन्तु इस प्रकार के अभ्यास का प्रयोजन विद्यार्थी को उस अनुभव को कराना है? जो अपना स्वतन्त्र व्यवसाय करने के लिए जीवन में आवश्यक होता है। इसी प्रकार? भगवान् यहाँ अर्जुन को दृश्य के द्वारा अदृश्य का दर्शन करने की कला को सिखाने के लिए अपनी कुछ विशेष विभूतियों का वर्णन करते हैं।उनका यह उद्देश्य उनकी इस स्वीकारोक्ति में स्पष्ट होता है? किन्तु मैंने अपनी विभूतियों का विस्तार संक्षेप से कहा है। भगवान् द्वारा किया गया वर्णन पूर्ण नहीं कहा जा सकता। साधकों को प्रशिक्षित करने के लिए उन्होंने कुछ विशेष उदाहरण ही चुन कर दिये हैं। जिन्होंने इन विभूतियों पर उत्साहपूर्वक ध्यान किया है? वे अनित्य रूपों में क्रीड़ा कर रहे स्वयं प्रकाश स्वरूप को सरलता से पहचान सकते हैं।संक्षेप में? भगवान् के कथन का सार यह है कि
English Translation By Swami Sivananda
10.40 There is no end to My divine gloreis, O Arjuna, but this is a brief statement by Me of the particulars of My divine glories.