Verse: 1,45
मूल श्लोक :
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।
Hindi Translation By Swami Ramsukhdas
।।1.45।।यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय कर बैठे हैं? जो कि राज्य और सुखके लोभसे अपने स्वजनोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं
।।1.45।। इस श्लोक में अर्जुन की बौद्धिक निराशा और मन की थकान स्पष्ट दिखाई पड़ती है जो वास्तव में बड़ी दयनीय है। आत्मविश्वास को खोकर वह कहता है अहो हम पाप करने को प्रवृत्त हो रहे हैं . इत्यादि। इस वाक्य से स्पष्ट ज्ञात होता है कि परिस्थिति पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के स्थान पर अर्जुन स्वयं उसका शिकार बन गया है। आत्मविश्वास के अभाव में एक कायर के समान वह स्वयं को असहाय अनुभव कर रहा है।मन की यह दुर्बलता उसके शौर्य को क्षीण कर देती है और वह उसे छिपाने के लिये महान प्रतीत होने वाली युक्तियों का आश्रय लेता है। युद्ध के लक्ष्य को ही उसने गलत समझा है और फिर धर्म के पक्ष पर स्वार्थ का झूठा आरोप वह केवल अपनी कायरता के कारण करता है। शान्तिप्रियता का उसका यह तर्क अपनी सार्मथ्य को पहचान कर नहीं वरन् मन की दुर्बलता के कारण है।
English Translation By Swami Sivananda
1.45. Alas! We are involved in a great sin, in that we are
prepared to kill our kinsmen, through greed for the pleasures of a kingdom.